
हम एक बस्ती गए थे — मकसद था वहां के लोगों से मिलना, उनकी ज़िंदगियों को समझना और जरूरतमंदों के लिए कुछ करना।
लेकिन उस दिन जो देखा…
वो सिर्फ एक घटना नहीं थी,
वो एक झटका था — सिस्टम को, समाज को, और हमें भी।
बस्ती के एक कोने में एक सजा-संवरा घर ।
पास खड़ी एक महिला ने बताया — “आज विदाई है…”
थोड़ा नज़दीक गए तो देखा —
एक बच्ची, मुश्किल से 15 साल की,
मांग में सिंदूर, गले में मंगलसूत्र, हाथों में चूड़ियाँ…
और आंखों में — बहते आंसू।
उसे सजाया गया था, लेकिन खुशी से नहीं — मजबूरी से।
उसकी शादी हो रही थी,लेकिन उसकी मर्जी से नही।
किसी ने नहीं पूछा — उसके सपने क्या हैं?
किसी ने नहीं सोचा — क्या वो इसके लिए तैयार है?
वो कुछ नहीं बोली, लेकिन उसकी चुप्पी चीख रही थी —
हम वहीं खड़े रह गए —
दिल भारी, आंखें नम।
एक और मासूम ज़िंदगी,
समाज के ठेकेदारों की सोच के नीचे दबा दी गई।
आज भी वो चेहरा हमारे ज़ेहन में है।
हर बार याद आता है, तो एक सवाल उठता है —
क्या हमने कुछ किया? क्या अब भी देर नहीं हुई?
“एक लड़की की शादी से पहले उसकी किताबें पूरी होनी चाहिए, न कि उसकी गृहस्थी।”
“बचपन सहेजिए, क्योंकि यही असली भविष्य है।”
हम सिर्फ एक सामाजिक संगठन नहीं हैं।
हम उन बच्चों की आवाज़ हैं —
जिन्हें बोलने का हक़ कभी मिला ही नहीं।
हम तब तक नहीं रुकेंगे,
जब तक हर लड़की को उसका बचपन,
उसकी शिक्षा,
और उसका “ना” कहने का हक़ वापस न मिल जाए।
आप भी साथ आइए।
बचपन को बचाइए।
शादी नहीं, शिक्षा दीजिए।